प्रणायाम की आवश्यकता क्यों ?
जिस प्रकार हमारे जीवन का आधार प्राण है, उसी प्रकार शरीर और मन का संतुलन बनाए रखने में प्राणायाम अत्यंत उपयोगी होता है। इसके बिना जीवन में आध्यात्मिक विकास नही हो पाता है। प्राणायाम का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है-शरीर का सम्पूर्ण विकास करना। व्यायाम में प्राण यानी वायु की प्रमुख भूमिका होती है। शरीर के लिए तीन घटक सर्वाधिक आवश्यक है-अन्न, जल और हवा।
अन्न जल के बिना मनुष्य कईं सप्ताह तक जीवित रह सकता हैं परंतु हवा के बिना एक पल भी जीवित रहना कठिन हो जाता हैं। क्योंकि शरीर की संपूर्ण कार्य प्रणाली श्वासों के आवागमन पर ही आधारित होती है। शरीर में नाक द्वारा ली गई वायु पहले दोनों फेफडों में जाती है। वहां उसका संपर्क रक्त वाहिनियो के अशुद्ध रक्त से होता है। श्वास के अंतर्गत प्राणवायु के संपर्क से रक्त की अशुद्धता समाप्त हो जाती हैं। नाक के केशजाल और दीर्घ नलिका से श्वास में उष्णता बढ़ती है। वह फेंफड़ो की नस-नस में भर जाती है।
फेफडे शरीर में सबसे हल्के एवं छिद्रोपाला इंद्रिया है। इसी कारण उनका अधिकाधिक संपर्क वायु केे साथ होता है। साँस आने-जाने के समय फेफडे छलनी की तरह रक्त में संचित अशुद्धता सोखकर वायु के रूप् में बाहर फंेक देते है। परंतु यह क्रिया होते समय वायु फेेफडों की सभी नसो तक नहीं पहुच पाती। इस कारण जो नसें प्राणवायु के संपर्क से वंचित से वंचित रहती हैं, उनमें कुछ वर्षों बाद कमजोरी आ जाने से कई रोग उत्पन्न हो जाते है। लेकिन प्राणायाम की साधना करने वाले साधको को टी.बी. आदि फेंफड़ो के रोग नहीं होते। इसीलिए कहा जाता है कि प्राणायाम द्वारा असाध्य कहे जाने वाले रोेगों को भी ठीक किया जा सकता है।
प्राणायाम मे तीन अवस्थाएं होती है-पूरक, कुंभक और रेचक।
- पूरक अवस्था में फेंफडों द्वारा लिया गया श्वास कुछ ही क्षणों में संपूर्ण शरीर में आवश्यक ऊर्जा का निर्माण करता है। इसी कारण दिन भर काम करने अथवा परिश्रम के बाद थक जाने पर लगातार छह-सात बार प्राणयाम करने से शरीर में तुरंत स्फूर्ति आ जाती है
- कुंभक अवस्था में श्वास को अंदर रोके रखा जाता हैं।
- तीसरी अवस्था रेचक में श्वास बाहर निकाल दी जाती हैं।
प्राणायाम में श्वास रोककर रखने का समय धीरे-धीरे बढ़ता जाता हैं। जितने परिणाम का श्वास दीर्घ होगा, उतने ही परिणाम में प्राणयाम में प्रगति होती जाएगी।
प्राणायाम का सर्वाधिक महत्वपूर्ण लाभ हैं – मानसिक विकास।
प्राणायाम की विविध अवस्थाओं से गुजरते हुए मन की एकाग्रता साधी जाती है। किसी भी कार्य में सफलता के लिए जरूरी है कि मन पूरी तरह से एकाग्र और शांत हो। लेकिन मन का स्वभाव चंचल है जिस कारण उसे काबू में रखने के लिए बाह्म प्रयास हमेशा निष्फल हो जाते है। ऐसे समय प्राणयाम से मन को एकाग्रता प्रदान करना ही एकमात्र उपाय रहता है।
प्राणायाम के बाद चिंतन, मनन, निदिध्यासन तथा ध्यान-धारणा आदि अवस्थाएं होती हैं। यदि प्राणायाम की प्रारंभावस्था मे दृढता रहती है तो अंतिम अवस्था में भी प्राणविजय की स्थिति होती है।
प्राणायम में पूरक के समय नाभि कमल स्थित विष्णु का, कुंभक के समय हृदय कमल स्थित ब्रह्मा का एवं रेचक के समय सहस्त्रार स्थित शिव का ध्यान करें।
कुछ साधक तीनों वक्त ब्रह्म, विष्णु एवं शिवात्मक सद्गुरू का ध्यान करते है। इसमें भी कोई बुराई नहीं है। इस प्रकार प्राणायाम करते समय विश्व की तीनों अवस्थाओं को कारणीभूत बनाने वाली तीन शक्तियों का ज्ञान एवं उनका उनका साक्षात्कार होता है। प्राणायाम का एक लाभ यह है कि सांस लेने, रोकने और छोड़ने में एक प्रकार की लयबद्धता आ जाती है। ऐसी मान्यता है कि ईश्वर ने प्रत्येक प्राणी को एक निश्चित संख्या में श्वास दिए है। इस प्रकार नियमित प्राणायाम करने वाला साधक परमात्मा द्वारा दी गई श्वासोच्छ्वास की संख्या अधिक समय तक प्रयोग में लाता रहता है जिससे उसकी आयु लम्बी होती हैं।
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